मानो तेरी स्मृतियाँ मेरे मन को झुला रही थी झूला
ठंडी हवाएं हैं बिल्कुल तेरी स्मृतियों की भांति
एक झुलाती शांखों को और एक मेरे पागल मन को
मन मेरा पागल मन उड़ जाना है चाहता
साथ इनके आसमान को छूना है चाहता
ठीक जैसे शाखें जुड़ी हैं पेडों से
मेरे मन को भी बाँध रखा है इस संसार ने
एक इधर से एक उधर जोर लगाता
मेरा मन अपने आप को बंधा है पाता
हवाएं सावन को हैं लाती
हरा भरा कर देती हर डाली को
मेरे मन की क्यारी भी न सूनी रह पाती
तेरी स्वर्ण स्मृतियों के रजत जल से गीली हो जाती
व्याकुल हो उठता है मन मेरा
बहुत मुश्किल है अब इस तरह बसेरा
बाँध के रखना इसको है अब बहुत ही मुश्किल
बिरहा का दुःख सहना अब तो है नामुमकिन
हवाओं तुम बहुत बलवान हो, सारे बंधन तोड़ दो
उड़ जाओ शाखों को अपने साथ लिए
ऐ मेरे प्रियतम मुझको भी अब तू साथ ले चल अपने
लगा ले गरबा कर दे दूर ये दुःख ये सिगरे
तेरे बिन अब नहीं जिया है जाए
पिया मिलन की आस में न जीवन कट जाए
अतः मुझको भी तू ले चल अब साथ अपने
-अर्श
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