Sunday, September 7, 2008

मिसालों में शिद्दत बयां नहीं कर सकता

मिसालों में शिद्दत बयां नहीं कर सकता
कम प्यार तुझे मैं कर नही सकता
सागर भी पशेमां है कि डूबा बच जाता है
इश्क में डूबे को कोई बचा नही सकता
नापूं तो आख़िर किस्से ऊँचाई तेरी
'अर्श' से ऊँचा तो कुछ बता नही सकता
-अर्श

और लोग कहते हैं तन्हाई है ... !!!

एक बार एक महफिल में तन्हाई पे ज़िक्र चल रहा था, हम बहुत देर सुनके आख़िर कार परेशान हो गए, और तभी एक ख़याल दिमाग में आया तो एक नज़्म कह डाली। गौर फरमाइए -

हर पल तेरी यादों के साये हैं,
हर पल इस दिल को तेरी याद आई है
कुछ अजनबी शक्सियतों के साथ
एक दुनिया हमने बसाई है
और लोग कहते हैं तन्हाई है ... !!!

याद है वो दिन जब जुदा हुए थे हम,
आंखें थी नम, दरिया बना था दामन
मोहब्बत ही है की तेरी खुशी में
होटों पे अपने मुस्कराहट हमने सजाई है
और लोग कहते हैं तन्हाई है ... !!!

आँखें बंद हों तो तुम्हें पाते हैं
तुझसे बातें करते घंटो बीत जाते हैं
जिंदगी ऐसे ही बिता दे हम तो लेकिन,
हर चेहरे में झलक तुम्हारी नज़र आई है
और लोग कहते हैं तन्हाई है ... !!!

दर-ए-यार पे टिकी रहती हैं आँखें
यकीं हैं, इस और फ़िर मुडेंगी तेरी राहें
एक आहट हो तो दिल खुश हो उठता है
कोई भी हो लगता है जैसे के तू आयी है
और लोग कहते हैं तन्हाई है ... !!!

अब भी उन चांदनी कोमल रातों में
दिल को तुम्हारे साथ टहेलता पाते हैं
अब भी उन मदमस्त बरसातों में
किसी रेशमी आँचल को भीगता पाते हैं
जहाँ बिताये थे हमने वो हसीन लम्हे
वहीँ बैठ हमने फ़िर एक नज्म गायी है
और लोग कहते हैं तन्हाई है ... !!!
-अर्श

ये रंज-ओ-ग़म तो मेरे साथी हैं

इश्क मेरा मज़हब है,
बहार-ऐ-वस्ल आती-जाती है
मुझे हमदर्दी न दो दोस्तों,
ये रंज-ओ-ग़म तो मेरे साथी हैं

शहर में आकर भी तेरे,
फिराक-ए-दीदा यह आँखें रही
तेरी महफिल में पैमाने लाखों थे,
बुझा सका न प्यास-ऐ-जिगर कोई भी
आंखों से पिला दी होती थोडी तो यार मेरे,
सुना है, तू तो बहुत बड़ा साकी है

वो नही तो ऐसा भी नही,
कभी पैमाना नही छुएंगे हम,
मोहब्बत जो है फितरत अपनी,
उससे दूर, कब तलक रहेंगे हम,
पर क्या करें यादों का, किया सौ बार दफ्न,
फिर भी हर एक साँस के साथ उभर आती हैं

दर्द-ऐ-दिल देकर पूछते हैं वो,
तुम्हारी नज्मों में बसा ग़म किसका है?
कत्ल कर करते हैं सवाल वो ,
खून-ऐ-जिगर में भीगा खंज़र किसका है?
आबाद रहे सदा आशियाँ उनका,
हमारी आबादी को उनकी एक मुस्कान ही काफी है

अभी जिंदा हूँ तो जी लेने दे,
ऐ दिल मत रोक मुझे, पी लेने दे
जो हैं दफ्न इस दिल में अरमान, ख्वाइश,
खुले में उनको भी तो कुछ साँस लेने दे
लम्हें कम हैं, डर मत, इन्हे बड़ा कर ऐ दिल,
साँसे चार ही सही,जिंदगी मगर अब भी बाकी हैं
-अर्श

Saturday, September 6, 2008

दो दिन तुम्हारे इंतज़ार में ये फूल ...

एक दफ़ा हुआ यूँ की हमारे एक अज़ीज़ दोस्त की दिलरुबा उन्हें दो दिन के बाद मिलने आने वाली थी, तो उन्होंने उनके इस्तकबाल के ढेरों इन्तेजामों में कुछ फूल भी लायेये देख एक मोहतरमा बोल पड़ी की दो दिन बाद फूलों की वो हालत होगी की उनकी दिलरुबा उनके मुंह पे फेंक कर मारेगीतो जबाब हमने अपने दोस्त की तरफ़ से कुछ इस तरह दिया -

दो दिन तुम्हारे इंतज़ार में
ये फूल मुरझा जायेंगे
बादल बरसेंगे जरूर
पर इनकी खुशबू न बचा पाएंगे
ऐसा कहते हैं लोग
हँसते हैं हमें दीवाना कहते हैं लोग
हम फ़िर भी इन्हें संभाल रखेंगे
तेरे इंतज़ार में इनसे बातें चार करेंगे

देख कर इनको
तुम भी मुझे दीवाना ही कहोगी
लेकिन मेरे दिल की तरह
इनको भी सीने से लगा ही लोगी
मेरी सूनी दुनिया तुम
फ़िर अपनी मुस्कान से सजा दोगी
ये फूल फिर से जी उठेंगे
ये तो चंद ज़र्रे हैं
ये क्या चमन भी महक उठेंगे
अब आना तो न दूर जाना
तुमसे दूर अब हम न रह सकेंगे
-अर्श

Thursday, September 4, 2008

आज सुबह आँखें खोली तो ...

आज सुबह आँखें खोली तो देखा शांखों को हिलते
मानो तेरी स्मृतियाँ मेरे मन को झुला रही थी झूला
ठंडी हवाएं हैं बिल्कुल तेरी स्मृतियों की भांति
एक झुलाती शांखों को और एक मेरे पागल मन को
मन मेरा पागल मन उड़ जाना है चाहता
साथ इनके आसमान को छूना है चाहता
ठीक जैसे शाखें जुड़ी हैं पेडों से
मेरे मन को भी बाँध रखा है इस संसार ने
एक इधर से एक उधर जोर लगाता
मेरा मन अपने आप को बंधा है पाता
हवाएं सावन को हैं लाती
हरा भरा कर देती हर डाली को
मेरे मन की क्यारी भी न सूनी रह पाती
तेरी स्वर्ण स्मृतियों के रजत जल से गीली हो जाती
व्याकुल हो उठता है मन मेरा
बहुत मुश्किल है अब इस तरह बसेरा
बाँध के रखना इसको है अब बहुत ही मुश्किल
बिरहा का दुःख सहना अब तो है नामुमकिन

हवाओं तुम बहुत बलवान हो, सारे बंधन तोड़ दो
उड़ जाओ शाखों को अपने साथ लिए
ऐ मेरे प्रियतम मुझको भी अब तू साथ ले चल अपने
लगा ले गरबा कर दे दूर ये दुःख ये सिगरे
तेरे बिन अब नहीं जिया है जाए
पिया मिलन की आस में न जीवन कट जाए
अतः मुझको भी तू ले चल अब साथ अपने
-अर्श

तुझसे तेरी तसवीर अच्छी है

तुझसे तो तेरी तसवीर अच्छी है
रहती है मेरे साथ मुझे ही तकती है
है एक मेरा दीवाना दिल,
जिसको है हर वक़्त उम्मीद विसाल-ऐ-यार की
और एक तू है,
जो मुझे सदा नाउम्मीद करती है
इतना भी सितम कम हो तो ये जान भी हाज़िर है
क्यों ख्वाबों में आ मेरी नींदें तबाह करती है

ऐ खुदा कहते हैं लोग
तुझे भी पा लूँ गर इतनी मोहब्बत तुझसे हो
मुझे तो उस दिल में ही तेरी खुदाई दिखती है
वोही बन्दिगी है मेरी उसे पाके ही तुझे पाऊंगा
इखलास का इम्तिहान है मेरे
देखें वो कब तलक इनकार करती है

आज सोचा भुला दूँगा तुझको
जो हैं निशाँ मिटा दूँगा सबको
नही था मालूम
हर धड़कन हर साँस में तू ही बस्ती है
तेरा नाम जो बह रहा है इस खून-ऐ-जिगर में मिलके
कैसे मिटाऊँ उसको
क्या करुँ कैसे भुलाऊँ तुझको
न है कोई उम्मीद न ही कोई तरकीब दिखती है
एक कतरा तक भी तेरी याद दिला जाता है
चाँद भी आए तो यही ख़याल आता है
ऐ चाँद, तुझसे तो मेरी महबूबा अच्छी है

शायर नही कोई मैं और न शायरी है मेरा काम
कलम हो हाथ में और गर सामने कागज़
फ़िर मेरी खता नही होती कोई
काम बाकी,
आंखों में बसी एक तसवीर करती है
इसलिए,
तुझसे तेरी तसवीर अच्छी है
-अर्श

Wednesday, September 3, 2008

ग़म और नहीं, एक ही काफ़ी है

एक बार हमारे एक खास दोस्त, खरे साहब ने पूछ लिया कि और अर्श साहब, कोई नही inspiration? उसके जबाब में चंद लफ्ज़ कहे थे, उम्मीद है कि आपको पसंद आयेंगे -

ग़म और नहीं एक ही काफ़ी है,
तेरी यादों के साए मेरी तन्हाई में साथी हैं
यूँ तो हैं लाख शम्माएं इस परवाने की ताक में,
दिल को जलाने के लिए एक चिंगारी ही काफ़ी है

तेरी खुशी की खातिर तुझसे दूर चले आए,
मेरी मोहब्बत का भी तुझे इल्म न होने पाए
एक हस्ता हुआ चेहरा जो इन आंखों में है,
मेरी खुशी के लिए यह चाँद ही काफ़ी है

ये दिल एक नाज़ुक मुकाम पे जा पहुँचा है,
तेरी यादों से दामन बचा हँसता रहता है
इस बेचारे को इतना भी नहीं मालूम,
के रुलाने के लिए एक नाम ही काफ़ी है

ये ज़िन्दगी एक दिन तिनकों में बिखर जायेगी,
कश्ती भी कभी भंवर में खो जायेगी
तूफानों मेरी तबाही की आस छोड़ दो,
मुझे डुबाने के लिए एक मस्त झोंका ही काफ़ी है

ग़म और नहीं, एक ही काफ़ी है ...
-अर्श

निकला हूँ आज फ़िर यही ख्वाब लेके

निकला हूँ आज फ़िर यही ख्वाब लेके,
के आज कहीं तो मुलाकात हो तुमसे
मिली तुम, हुआ सलाम,
तुमने पूछा क्या है हाल,
कहा हमने
पता नही इतना बेकरार क्यों हूँ,
समझ नही आता के इतना बेकार क्यों हूँ
आँखें बंद हों तो तुम ही नज़र आते हो,
खोलते ही पता नहीं कहाँ खो जाते हो
घर कुछ इस तरह से कर लिए है आंखों में तुमने,
के दो मोती भी न छोडे हैं बहाने को
बहुत रोका बहुत टोका अब दिल नही मानता है,
प्यार है तुमसे बस यही जानता है

मिल जाओ तुम यह नही है चाहत,
परवानो को जलकर ही मिलती है राहत
कहते हैं वो फ़िर क्यों जिंदिगी बर्बाद करते हो,
धोका है मोहब्बत क्यों ऐतबार करते हो
वायज ही पूछते हैं मोहब्बत का सबब,
जैसे काफिर ही पूछते हैं बंदगी का सबब
जी लूँगा मैं दिल में लिए तेरी उल्फत,
तू खुश रहे मेरे महबूब नहीं कुछ और चाहत

फ़िर आँखें खुली फ़िर तुम गायब,
देखा था एक और ख्वाब शायद
पता नहीं यह कभी कह पाऊँगा तुमसे
लेकिन,
निकला हूँ आज फ़िर यही ख्वाब लेके...
-अर्श