Tuesday, May 17, 2011

कहाँ छोड़ आये हो वो साथी ?

कल चलते चलते एहसास हुआ,
के कुछ जानी पहचानी सी हैं ये राहें.
हवायें कुछ ऐसे छू गयी,
मानो बाहों में भर लिया हो किसी ने,
इक महक मन को बहकाती रही.
चाँद की तरफ देखा तो यूँ लगा,
कोई देख रहा था मुझको,
हम भी नजर मिला चलते रहे.
कुछ कही-अनकही,
कुछ जानी-अनजानी सी,
सदायें भी आती रही.
इक आहट किसी के मंद क़दमों की,
हमसफ़र थी मेरी.
कभी लगा किसी ने हाथ थाम के कहा,
चलो न लम्हा दो लम्हा यहीं बैठ जाएँ.
वो सड़क के किनारे वाले खम्बे
पे टिक कर जो ऊपर की और
उसकी नज़रों में देखा,
तो रौशनी धीमी कर वो बोला,
बड़े दिन बाद नजर आये हो.
रोज सुनता था,
जो छोड़ गए थे,
इन फिजाओं में बातें.
बहुत तेज चलने लग गए हो शायद,
कहाँ छोड़ आये हो वो साथी ?